बुधवार, 4 जनवरी 2012

छत्तीसगढ़ के गौरव पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय

   छत्तीसगढ़ के गौरव पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय 

 छत्तीसगढ़ जैसे वनांचल के किसी ग्रामीण कवि को साहित्य का सर्वोच्च सम्मान “साहित्य वाचस्पति” दिया जाये तो उसकी ख्याति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। बात तब की है जब इस सम्मान के हकदार गिने चुने लोग थे। छत्तीसगढ़ की भूमि को गौरवान्वित करने वाले महापुरूष बालपुर के प्रतिष्ठित पाण्डेय कुल के जगमगाते नक्षत्र पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय थे। उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन् 1948 में मेरठ अधिवेशन में साहित्य वाचस्पति से सम्मानित किया गया था। वे इस सम्मान से विभूषित होने वाले छत्तीसगढ़ के पहले व्यक्ति थे। इस सम्मान को पाले वाले व्यक्तियों को पाण्डेय जी ने इस प्रकार रेखांकित किया है :-
          गर्व गुजरात को है जिनकी सुयोग्यता का,
          मुंशीजी कन्हैयालाल भारत के प्यारे हैं
          विश्वभारती है गुरूदेव का प्रसिद्ध जहॉ
          उस बंगभूमि के सुनीति जी दुलारे हैं
          ब्रज माधुरी के सुधा सिंधु के सुधाकर में
          विदित वियोगी हरि कवि उजियारे हैं
          मंडित “साहित्य वाचस्पति” पदवी से हुए
          लोचन प्रसाद भला कौन सुनवारे हैं।
     बाद में इस अलंकरण से छत्तीसगढ़ के अनेक साहित्यकार विभूषित किये गये। कहना अनुचित नहीं होगा कि छत्तीसगढ़ में अन्यान्य उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। पंडित शुकलाल पाण्डेय की एक कविता देखिये:-
          यही हुए भवभूति नाम संस्कृत के कविवर
          उत्तर राम चरित्र ग्रंथ है जिसका सुन्दर
          वोपदेव से यही हुए हेैं वैयाकरणी
          है जिसका व्याकरण देवभाषा निधितरणी
          नागर्जुन जैसे दार्शनिक और सुकवि ईशान से
          कोशल विदर्भ के मध्य में हुए उदित शशिभान से ।
     छत्तीसगढ़ की माटी को हम प्रणाम करते हैं जिन्होंने ऐसे महान् सपूतों को जन्म दिया है। छत्तीसगढ़ वंदना की एक बानगी स्वयं पाण्डेय जी के मुख से सुनिए:-
          जयति जय जय छत्तीसगढ़ देस
          जनम भूमि, सुखर सुख खान ।
          जयति जय महानदी परसिद्ध
          सोना-हीरा के जहॉ खदान ॥
          जहॉ के मोरध्वज महाराज
          दान दे राखिन जुग जुग नाम ।
          कृष्ण जी जहॉ विप्र के रूप
          धरे देखिन श्री मनिपुर धाम ॥
          जहॉ है राजिवलोचन तिरिथ
          अउ, सबरीनारायण के क्षेत्र ।
          अमरकंटक के दरसन जहॉ
          पवित्तर होथे मन अउ नेत्र ॥
          जहॉ हे ऋषभतीर्थ द्विजभूमि
          महाभारत के दिन ले ख्यात् ।
          आज ले जग जाहिर ऐ अमिट
          जहॉ के गाउ दान के बात ॥
     मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि यह मेरी भी जन्म स्थली है। मुझे यह विधा विरासत में मिली है। क्योंकि प्राचीन काल में महानदी का तटवर्ती क्षेत्र बालपुर, राजिम और शिवरीनारायण सांस्कृतिक और साहित्यिक तीर्थ थे। उस काल के केंद्र बिंदु थे- शिवरीनारायण के तहसीलदार और सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह जिन्होंने छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को केवल समेटा ही नहीं बल्कि उन्हें एक दिशा भी दी है। उस काल की रचनाधर्मिता पर पाण्डेय जी के अनुज पंडित मुकुटधर पाण्डेय के विचार दृष्टव्य है- “मुझे स्मरण होता है कि भाई साहब ने जब लिखना शुरू किया तब छत्तीसगढ़ में हिन्दी लिखने वालों की संख्या उंगली में गिनने लायक थीं। जिनमें रायगढ़ के पं. अनंतराम पाण्डेय, परसापाली के पं. मेदिनीप्रसाद पाण्डेय, शिवरीनारायण के ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. मालिक राम भोगहा, हीराराम त्रिपाठी, धमतरी के कृष्णा नयनार, कवि बिसाहूराम आदि प्रमुख थे। छत्तीसगढ़ी व्याकरण लिखने वाले काव्योपाध्याय हीरालाल दिवंगत हो चुके थे। राजिम के पं. सुंदरलाल शर्मा की छत्तीसगढ़ी दानलीला नहीं लिखी गई थी। माधवराव सप्रे का पेंड्र्ा से निकलने वाला 'छत्तीसगढ़ मित्र' नामक मासिक पत्र बंद हो चुका था और वे नागपुर से 'हिन्द केसरी' नामक साप्ताहिक पत्र निकालने लगे थे। भाई साहब सप्रेजी को गुरूवत मानते थे। मालिक राम भोगहा से हमारे ज्येष्ठ भ््रा्राता पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पाण्डेय की मित्रता थी और वे नाव की सवारी से बालपुर आया करते थे। वे ठा. जगमोहन सिंह के शिष्य थे। उनकी भाषा अनुप्रासालंकारी होती थी। भाई साहब उन्हें अग्रज तुल्य मानते थे। प्रारंभ में भाई साहब की लेख्न शेैली उनसे प्रभावित थी, उनका गद्य भी अनुप्रास से अलंकृत रहता था।”
     “मैं कवि कैसा हुआ” शीर्षक से लिखे लेख के प्रारंभ में लोचन प्रसाद जी लिखते हैं :-”एक दिन शाम को मैं काम से आकर आराम से अपने धाम में बैठकर मन रूपी घोड़े की लगाम को थाम उसे दौड़ाता फिरता तथा मौज से हौज में गोता लगाता था कि मेरी कल्पना की दृष्टि में एकाएक कवि की छवि चमक उठी।“ यही उनकी लेखनी के प्रेरणास्रोत थे। हालांकि उन्होंने लेखन की शुरूवात काव्य से किया मगर बाद में वे इतिहास और पुरातत्व में भी लिखने लगे।
     उनकी पहली रचना सन् 1904 में बालकृष्ण भट्ट के हिन्दी प्रदीप में प्रकाशित हुई। फिर उनकी रचनाएं सन् 1920 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होती रही। इस बीच उनके करीब 48 पुस्तकें विभिन्न प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित हुईं उनकी प्रथम काव्य संग्रह “प्रवासी” सन् 1907 में राजपूत एंग्लो इंडियन प्रेस आगरा से प्रकाशित हुई। यह पाण्डेय कुल से प्रकाशित होने वाला पहला काव्य संग्रह था। इसके पूर्व 1906 में उनका पहला हिन्दी उपन्यास “दो मित्र” लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद से प्रकाशित हो चुका था। इसी प्रकार खड़ी बोली में लिखी गई लघु कविताओं का संग्रह “नीति कविता” 1909 में मड़वाड़ी प्रेस नागपुर से प्रकाशित हुआ। नागरी प्रचारणी सभा बनारस ने इसे “उत्तम प्रकाशित उपयोगी पुस्तक” निरूपित किया। सन् 1910 में पांडेय जी ने ब्रज और खड़ी बोली के नये पुराने कवियों की रचनाओं का संकलन-संपादन करके “कविता कुसुम माला” शीर्षक से प्रकाशित कराया। इससे उन्हें साहित्यिक प्रतिष्ठा मिली और उनकी गणना द्विवेदी युग के शीर्षस्थ रचनाकारों में होने लगी। तब वे 24-25 वर्ष के नवयुवक थे। फिर उनकी भक्ति उपहार, भक्ति पुष्पांजलि और बाल विनोद जैसी शिक्षाप्रद रचनाएँ छपीं। फिर उनके रचनाकाल का उत्कर्ष आया। सन् 1914 में माधव मंजरी, मेवाड गाथा, चरित माला और 1915 में पुष्पांजलि, पद्य पुष्पांजलि जैसी महत्वपूर्ण कृतियॉ प्रकाशित हुई।

     20 वीं सदी के प्रारंभिक वर्षो में जब श्रीधर पाठक ने गोल्ड स्मिथ के “डेजर्टेेड विलेज” का “उजाड़ गॉव” के नाम से अनुवाद किया था। उसी तर्ज में पाण्डेय जी ने भी “ट्रेव्हलर” की शैली में “प्रवासी” लिखा है। जो अनुवाद नहीं बल्कि मौलिक रचना है। इस संग्रह में छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन की झांकी देखने को मिलता है। “कविता कुसुम माला” में ब्रज भाषा में पाण्डेय जी की कविताएं संग्रहित हैं।
     हिन्दी नाटक के विकास में पाण्डेय जी का अभूतपूर्व योगदान है। उन्होंने प्रेम प्रशंसा या गृहस्थ दशा दर्पण, साहित्य सेवा, छात्र दुर्दशा, ग्राम विवाह, विधान और उन्नति कहॉ से होगी, आदि नाटकों की रचना की है। उन्होंने सन् 1905 में “कलिकाल” नामक नाटक लिखकर छत्तीसगढ़ी भाषा में नाटय लेखन की शुरूवात की। आचार्य रामेश्वर शुक्ल अंचल ने पाण्डे जी की गणना हिन्दी के मूर्धन्य निबंधकारों में की है। लेकिन आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने पाण्डेय जी को स्वच्छदंतावादी काव्य की पुरोधा मानते हुए लिखा है - “लोचन प्रसाद पाण्डेय के काव्य में संस्कृत छंद और भाषा का अधिक स्पष्ट निदर्शन है। उनके काव्य में पौराणिकता की छाप भी है। इसमें संदेह नहीं कि उनकी कविता पर उड़िया और बांगला भाषा का स्पष्ट प्रभाव है। उनकी सारी रचनाएँ उपदेशोन्मुखी है”
     महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “कविता कलाप” में पं. लोचन प्रसाद जी की रचनाओं को स्थान दिया है और      श्री नाथूराम शंकर शर्मा, लोचन प्रसाद पाण्डेय, रामचरित उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त और कामता प्रसाद गुरू को “कवि श्रेष्ठ” घोषित किया है।
     पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, उड़िया, बंग्ला, पाली, संस्कृत आदि अनेक भाषाओं का ज्ञान था। इन भाषाओं में उन्होंने रचनाएं की है। उनकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित होकर बामुण्डा; उड़िसा के नरेश द्वारा उन्हें “काव्य विनोद” की उपाधि सन् 1912 में प्रदान किया गया। प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन गोंदिया में उन्हें “रजत मंजूषा” की उपाधि और मान पत्र प्रदान किया गया। पं. शुकलाल पाण्डेय “छत्तीसगढ़ गौरव” में उनके बारे में लिखते हैं -
          यही पुरातत्वज्ञ-सुकवि तम मोचन लोचन
          राघवेन्द्र से बसे यहीं इतिहास विलोचन ।
     ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. लोचन प्रसाद पांण्डेय जी का जन्म जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर के सुपरिचित पाण्डेय कुल में पौष शुक्ल दशमी विक्रम संवत 1943 तदनुसाद 4 जनवरी सन् 1887 को पं. चिंतामणी पांडेय के चतुर्थ पुत्र रत्न के रूप में हुआ। वे आठ भाई सर्व श्री पुरूषोत्तम प्रसाद, पदमलोचन, चन्द्रशेखर, लोचन प्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा चार बहन चंदन कुमारी, यज्ञ कुमारी, सूर्य कुमारी, और आनंद कुमारी थीं। उनकी माता देवहुति ममता की प्रतिमूर्ति थी। पितामह पंडित शालिगराम पांडेय धार्मिक अभिरूचि और साहित्य प्रेमी थे। उनके निजी संग्रह में अनेक धर्मिक और साहित्यिक पुस्तकें थी। आगे चलकर साहित्यिक पौत्रों ने प्रपितामही श्रीमती पार्वती देवी की स्मृति में “पार्वती पुस्तकालय” का रूप दिया। ऐसे धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में वे पले-बढ़े। प्रारंभिक शिक्षा बालपुर के निजी पाठशाला में हुई। सन् 1902 में मिडिल स्कूल संबलपुर से पास किये और सन् 1905 में कलकत्ता वि0 वि0 से इंटर की परीक्षा पास करके बनारस गये जहॉ अनेक साहित्य मनीषियों से संपर्क हुआ। अपने जीवन काल में अनेक जगहों का भ्रमण किया। साहित्यिक गोष्ठियों, सम्मेलनों, कांग्रेस अधिवेशन, इतिहास-पुरातत्व खोजी अभियान में सदा तत्पर रहें। उनके खोज के कारण अनेक गढ, शिलालेख, ताम्रपत्र, गुफा प्रकाश में आ सके। सन् 1923 में उन्होंने “छत्तीसगढ़ गौरव प्रचारक मंडली” बनायी जो बाद में “महाकौशल इतिहास परिषद” कहलाया। उनका साहित्य इतिहास और पुरातत्व में समान अधिकार था। 8 नवम्बर सन् 1959 को वे स्वर्गारोहण किये। उन्हें हमारा शत् शत् नमन..
“कमला” के संपादक पं. जीवानन्द शर्मा के शब्दों में -
लोचन पथ में आय, भयो सुलोचन प्राण धम
अब लोचन अकुलाय, लखिबों लोचन लाल को।
प्रोफ़ेसर अश्विनी केशरवानी 
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पंडित लोचनप्रसाद पांडेय की रचनाएं :

1. कलिकाल (छत्तीसगढ़ी नाटक, 1905)
2. प्रवासी (काव्य संग्रह, 1906)
3. दो मित्र (उपन्यास, 1906)
4. बालिका विनोद (1909)
5. नीति कविता, 1909
6. हिन्दू विवाह और उसके प्रचलित दूषण, 1909
7. कविता कुसुममाला, 1909
8. कविता कुसुम (उड़िया काव्य संग्रह, 1909)
9. रोगी रोगन (उड़िया काव्य संग्रह, 1909)
10. भुतहा मंडल, 1910
11. महानदी (उड़िया काव्य संग्रह, 1910)
12. दिल बहलाने की दवा, 1910
13. शोकोच्छवास, 1910
14. लेटर्स टू माई ब्रदर्स, 1911
15. रघुवंश सार (अनुवाद, 1911)
16. भक्ति उपहार (उड़िया रचना, 1911)
17. सम्राट स्वागत, 1911
18. राधानाथ राय : द नेशनल पोएट ऑफ ओरिसा, 1911
19. द वे टू बी हैप्पी एंड गे, 1912
20. भक्ति पुप्पांजलि, 1912
21. त्यागवीर भ्राता लक्ष्मण, 1912
22. हमारे पूज्यपाद पिता, 1913
23. बाल विनोद, 1913
24. साहित्य सेवा, 1914
25. प्रेम प्रशंसा (नाटक, 1914)
26. माधव मंजरी (नाटक, 1914)
27. आनंद की टोकरी (नाटक, 1914)
28. मेवाड़गाथा (नाटक, 1914)
29. चरित माला (जीवनी, 1914)
30. पद्य पुष्पांजलि, 1915
31. माहो कीड़ा (कृषि, 1915)
32. छात्र दुर्दशा (नाटक, 1915)
33. क्षयरोगी सेवा, 1915
34. उन्नति कहां से होगी (नाटक, 1915)
35. ग्राम्य विवाह विधान (नाटक, 1915)
36. पुष्पांजलि (संस्कृत, 1915)
37. भर्तृहरि नीति शतक (पद्यानुवाद, 1916)
38. छत्तीसगढ़ भूषण काव्योपाध्याय हीरालाल (जीवनी, 1917)
39. रायबहादुर हीरालाल, 1920
40. महाकोशल हिस्टारिकल सोसायटी पेपर्स भाग 1 एवं 2
41. जीवन ज्योति, 1920
42. महाकोसल प्रशस्ति रत्नमाला, 1956
43- कौसल कौमुदी, पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. रायपुर से प्रकाशित
44- समय की शिला पर, गुरू घासीदास वि.वि. बिलासपुर द्वारा प्रकाशित
अप्रकाशित रचनाएं :-
45- मनोरंजन
46- युद्ध संगीत
47- स्वदेशी पुकार
48- सोहराब वध (उड़िया)
49- कविता कुसुम (छत्तीसगढ़ी)
50- कालिदास कृत मेघदूत का अनुवाद
51- आटोबायोग्राफी (अंग्रेजी)
52- फोकटेल्स ऑफ बेंगाल (अंग्रेजी)
53- केदार गौरी, राधानाथ राय के उड़िया काव्य का पद्यानुवाद

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